कथाओं का सिलसिला, कथक के साथ!!

Tuesday, August 02, 2005

कशिश - ४

"तुम एक बार कह के तो"
"पर, वेद"
"क्या?"
"लेकिन"
"क्यों?"

"वेद, तुम इतना हक्क क्यों जता रहे हो?"
"मैं..."
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और वह चुप हो गया। आख़िर किस अधिकार से वह फिर कहे?
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और वह सोचती रह गयी, "काश तुम एक बार और कहते।"

Sunday, July 17, 2005

कशिश - ३

वह बंधन में बंधती जा रही थी।
किस हक्क से, यह वक समझ नही पायी।

Monday, July 11, 2005

कशिश - २

यह लहरें उस के मन के किसी कोने को छू गयीं। उस स्पर्श ने कुछ सोये अरमान जगा दिये, अतीत के कुछ ऐसे पलों की यादें फिर जगा दी, ऐसी ख्वाहिशें जिन्हें वह महसूस करना भूल ही गई थी।

वेद, कशिश के मन को मोहित कर गया। इंतज़ार था उस दिन का जब वह उसके उस तन को भी अंकित कर दे।

Wednesday, June 29, 2005

कशिश - १

हिंदी मे लिखने का "श्री गणेश" कर तो दिया था, पर उसे क्रम मे नहीं रख पायी।

"कशिश", यह कहानी में कड़ियों मे लिख रही हूँ।

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पानी की गहराई का अंदाज़ा तो जितना आपका, उतना ही मेरा। पर पते की बात यह कि सदियों से स्थिर पानी में एक हल्की सी हलचल से लहरें उठ चुकी थी।

Thursday, January 20, 2005

ऐक तमाशा, और फिर कयी

वह फिर वह वहीं खडी थी
फिर वही आस
उस गुज़रे वक्त को बदलने का प्रयास
फिर मुट्ठी में सभ कुछ बंद कर लेने की वही नाकामयाब कोशिश

वही आस लगाये, उसी इंतज़ार में
वही दिन का ढलना
वही सूरज का फिर से उगना
और कुछ भी ना बदलना

समय के पैये तो खैर क्या थंबते?
वह भी कभ तक आस लगाये बैठी रहती?
मन के किसी कोने में उन अनगिनत लमहों की ख्वाइश उसने छिपाली
उस प्यार को तराशने का खयाल वक्त ने मिटा दिया

जीवन धारा चलती रही
उस धारा के साथ वह भी बहती रही
चंद लोगों के लिखे इस तमाशे को
ऐक अजनबी की आँखो से वह देखती रही

Friday, December 31, 2004

नया साल मुबारक

आप सभी को नये साल की शुभकामनाऍ।

Saturday, December 25, 2004

कथक की कथायें, अभ आपहिकी अपनी बोली में

हम ज़रुर कहें, कि अब हम विशव निवासी हैं, परंतु, कही ना कही हमारे जड़ हमें खींच ही लेते हैं। मैंने हमेशा माना, और कहा कि अंग्रेज़ी ही मेरी भाशा हे। और कयों ना हो ? कभी हिन्दी की ओर जरुरत से ज्यादा ध्यान देने का खयाल आया ही नही। लेकिन ऐक दिन ऐसेही बैठे बात छिडी, तो लगा कि क्या हिन्दी का अंत भी उन अनेक भाशाओं कि तरह होगा जिन्हे कोइ आज पूछता तक नही है?

क्या यह उस बात का असर है, या इसका कि जब आये दिन हम हिन्दी में बात करतें हैं, कुछ हद्द तक सोचते भी हैं, तो क्यों ना उसी भाशा में लिखा भी जाये? और इसका यह मतलब भी नही है कि हम अपने में ही इस कगर रम जायें कि दूसरों का खयाल ना आये।

कुछ सवाल हैं, कुछ खयाल हैं, जो इस वक्त कुछ घुंदलें से हें...... फिर भी इस भाशा में कूछ तो है, जो बार बार अपनी ओर ख़ीच लेता है, और आपके लिये, कथक की कथायें, अपनी ही बोली में!!